सैर पहले दरवेश की
सैर पहले दरवेश
की
पहला दरवेश पालती
मार गया और अपनी सैर का क़िस्सा इस तरह से कहने लगा :
अये यारा ! मेरी
पैदाइश और वतन बुज़र्ग़ो का मुल्क यमन है। वालिद इस
अजीज़ का मलिक इल्तेज़ार ख्वाजा अहमद
नाम बड़ा सौदागर था। उस वक़्त में कोई महाजन या बेपारी उनके बराबर न था। अक्सर शहरो में गुमाश्ते और कोठिया खरीद व फरोख्त के वास्ते मुक़र्रर थे
,और लाखो रुपये नक़द और जींस मुल्क मुल्क की घर में मौजूद थी। उनके यहाँ दो बच्चे पैदा हुए ,एक तो यही फ़क़ीर जो कफनी सीली पहनी हुई
है मुर्शिदों की हुज़ूरी में हाज़िर बोलता है।
,दूसरी एक बहन जिसको क़िब्ला गाह ने अपने जीते
जी शहर के सौदागर बच्चे से शादी कर दी थी वह अपने ससुराल में रहती थी। गरज़ जिस घर में इतनी
दौलत और एक लड़का हो ,उसके लाड प्यार का क्या
ठिकाना है ? मुझे फ़क़ीर ने बड़े चाओ से परवरिश पायी ,और पढ़ना लिखना ,सिपहगिरी का ,सौदागिरी
का बही खाता रहा ,रोज़नामा सीखने लगा। चौदा बरस तक निहायत ख़ुशी और बे फ़िक्री
में गुज़रे ,कुछ दुनिया का अंदेशा दिल में न आया
अचानक एक ही साल में माँ बाप चल बसे।
अजब तरह ग़म हुआ जिसका बयां नहीं कर सकता। एक बरगी यतीम हो गया। कोई सर पर बूढ़ा बड़ा न रहा। इस मुसीबत न गहानि से रात दिन रोया करता था ,खाना पीना सब छूट गया। चालीस दिन जैसे तैसे कटे। उसके बाद जब फतह से फारिग हुए सबने फ़क़ीर को बाप की पगड़ी बंधवाई और अमझाया : दुनिया में सबके माँ बाप मरते आये है। और अपने भी एक रोज़ मरना है पस सब्र करो और अपने हर को देखो। अब बाप की जगह तुम सरदार हुए ,अपने कारोबार और लेन देन से होशियार रहो। तसल्ली देकर वह रुखसत हुए ,कारोबारी ,नौकर चाकर जितने भी थे आ कर हाज़िर हुए नज़रे दी और बोले : कोठे और नक़द व जींस के अपनी नज़र मुबारक से देख लीजिये ,एक बारगी जब बे इन्तहा दौलत पर नज़र पड़ी। आँखे खुल गयी दीवान खाने की तैयारी का हुक्म दिया ,फर्राशों ने फर्श बिछा कर छत ,परदे लगा दी। और अच्छे अच्छे खिदमतगार दीदार नौकर रखे। सरकार से ज़र्क़ बर्क़ की पोशाके बनवा दी ,फकीर मसनद पर तकिया लगा कर बैठा वैसे ही गुंडे ,मुफ्त पर खाने पीने वाले ,झूठे खुशामदी ,आकर आशना हुए। उनसे आठ पहर सोहबत रहने लगी। हर कही की बाते और तबाही इधर उधर की करते और कहते ; इस जवानी के आलम में केतकी की शराब या गुले गुलाब खिचवाईये। नाज़नीन माशूका को बुलवा कर उनके साथ ऐश कीजिये।
गरज़ ,आदमी का शैतान आदमी है। हरदम के कहने सुनने से अपना भी मिज़ाज बहक गया ,शराब नाच और जुए का चर्चा शुरू हुआ। फिर तो यह नौबत आगयी की सौदागिरी भूल कर तमाश बीनी का और देने लेने का सौदा शुरू हुआ। अपने नौकर और रफ़ीक़ो ने जब यह गफलत देखि। जो जिसके हाथ पड़ा ,अलग किया गोया लूट ,मचा दी। कुछ खबर न थी कितना रूपया खर्चा होता है। कहा से आया और किधर को जाता है ? माले मुफ्त दिल बे रहम ,इस खर्ची के आगे अगर क़ारून का खज़ाना होता। तो भी वफ़ा न होता कई बरस के अरसे में एक बारगी यह हालत हुई की फ़क़त टोपी और लंगोटी बाक़ी रही। वह आशना काफूर हो गए। बल्कि राह बाट में अगर कही मुलकात हो जाती तो आँखे चुरा कर मुंह फेर लेते और नौकर चाकर ,खिदमत गार ,ख़ास बिरदार ,सब छोड़ कर किनारे लगे .कोई बात का पूछने वाला न रहा जो कहे : यह क्या तुम्हारा हाल हुआ ? सिवाए ग़म और अफ़सोस के कोई रफ़ीक़ न रहा .
अब दमड़ी की ठूठिया नहीं जो चबा कर पीओ ,दो तीन फ़ाक़े कड़ाके के खींचे ,ताब भूक की न ला सका ,लाचार ,बे हयाई का बुर्का डाल कर ,यह क़स्द किया की बहन के घर चलिए। लेकिन यह शर्म दिल में आती थी की क़िब्ला गाह की मरने के बाद न बहन से अच्छे सुलूक किया ,न खाली खत लिखा ,बल्कि उसने दो एक खत खुतूत मातम पुरसी के लिखे। उनका भी जवाब इस ख्वाबे खरगोश में न भेजा। इस शर्मिंदगी से दिल न चाहता था ,पर सिवाए इस घर के और कोई ठिकाना नज़र में न ठहरा। जैसे तैसे खली हाथ ,गिरता पड़ता ,हज़ार मेहनत से वह कई मंज़िले काट कर ,हमशेर के शहर में जा कर उसके मकान पर पंहुचा।
वह माँ जाई ,मेरा यह हाल देखा कर बलाएँ ली और गले मिल कर ,बहुत रोइ। तेल माश और काले टीके से मुझ पर सदक़े किये। कहने लगी :मुलाक़ात से दिल बहुत खुश हुआ ,लेकिन भैया : तेरी यह क्या सूरत बनी ? उसका जवाब में कुछ न दे सका। आँखों में आंसू डबडबा कर चुपके रहा। बहन ने जल्दी खासी पोषक सिल्वा कर ,हम्माम में भेजा। नहा धो कर दो कपड़े पहने एक मकान अपने पास बहुत अच्छा मेरे रहने को तैयार किया। क्या सुबह को शरबत और हलवा सोहन ,पिस्ता मगज़ी नाश्ते को। और तीसरे पहर मेवे खुश्क व फल। और रात दिन दोनों वक़्त पिलाओ नान ,कलिये ,कबाब ,तोहफा तोहफा मज़े दार मंगवा कर। अपने सामने खिला कर जाती। सब तरह खातिर दारी करती .मैंने लम्बे वक़्त के बाद यह आराम पाया। खुदा की दरगाह में हज़ार हज़ार शुक्र बजा लाया। कई महीने के बाद तक इस घर से बाहर न निकला।
एक दिन वह बहन
कहने लगी : अये बीरन ! तू मेरी आँखों की पुतली और माँ बाप की मिटटी की निशानी है। तेरे
आने से मेरा कलेजा ठंडा हुआ ,जब तुझे देखती
हु ,बाग़ बाग़ होती हु। तूने मुझे निहाल किया लेकिन मर्दो को खुदा ने कमाने के लिए बनाया है। घर में बैठे रहना उनको लाज़िम
नहीं। जो मर्द निखट्टू हो कर घर सीता है। उसको दुनिया के लोग ताना देते है। खास कर उस शहर के आदमी छोटे बड़े
सब तुम्हारे रहने पर कहेंगे। ;अपने बाप की दौलत
खोखा करके ,बहनोई के टुकड़ो पर आ गिरा। यह निहायत बे गैरती और मेरी तुम्हारी
हंसाई और माँ बाप के नाम को सबब लाज लगने का
है। नहीं तो मैं अपने चमड़े की जूतिया बना कर पहनाऊं ,और कलेजे माँ दाल रखु। अब यह सलाह
है की सफर का क़स्द करो। खुदा चाहे तो दिन फिरे
और इस हैरानी और मुफलिसी के बदले ,ख़ुशी हासिल करो।
यह बात सुन कर
मुझे भी गैरत आयी उसकी नसीहत पसंद की। जवाब दिया : अच्छा अब तुम माँ की तरह हो जो कहो सो करू
.यह मेरी मर्ज़ी पा कर घर में जा कर पचास तोड़े अशर्फी के लड़की के हाथ में भ्जिवाया। मेरे आगे ला रखे और बोली : एक काफला सौदागरों
का दमश्क़ को जाता है। तुम उन रुपयों से तिजारत की खरीद करो ,एक ताजिर ईमान दार के हवाले करके दस्त कागज़ लिखवा लो और आप भी
क़स्द दमश्क़ का करो। वहा जब खैरियत से जा पहुँचो अपना माल मुनाफा समझ बुझ लो। या आप बेचो। मैं वह
नक़द लेकर बाजार गया ,असबाब सौदागरी का खरीद कर एक बड़े सौदागर के हवाले किया और खासी
खातिर जमा कर ली। वह ताजिर दरिया की राह से जहाज़
पर सवार हो कर रवाना हुआ। फ़क़ीर ने खुश्की की राह चलने की तैयारी की। जब रुखसत
होने लगा बहन ने एक सिरे पाओ भारी और एक घोड़ा
जुड़वाँ साज़ से किया। और मिठाई पकवान एक खास
दान में भर कर हिरने से लटका दिया। इमाम जामन
रूपया मेरे बाज़ू पर बांधा। वही टीका माथे पर लगा कर। आंसू पी कर बोली सिधारो ! तुम्हे
खुदा को सौंपा पीठ दिखाए जाते हो। इसी तरह जल्द अपना मुँह दिखाना मैंने फातेहा खैर
की पढ़ कर कहा : तुम्हारा भी अल्लाह हाफिज है।
मैंने क़ुबूल किया। वहा से निकलकर घोड़े पर सवार हुआ। और खुदा पर भरोसा करके दो मज़िल
की एक मंज़िल करता हुआ दमश्क़ के पास जा पंहुचा।
गरज़ जब शहर के दरवाज़े पर गया। बहुत रात हो चुकी थी। दरबान और निगहबानों ने दरवाज़ा बंद किया था। मैंने बहुत मिन्नत की मुसाफिर हु दूर से आया हु अगर किवाड़ खोल दो साहहर में जाकर दाने घास पर आराम करू अंदर से बोले : इस वक़्त दरवाज़ा खोलने का हुक्म नहीं क्यू इतनी रात गए तुम आये ? जब मैंने जवाब साफ़ उनसे सुना शहर पनाह दिवार के तले घोड़े पर से उतर जैन पॉश बिछा कर बैठा। जागने की खातिर इधर उधर टहलने लगा .जिस वक़्त आधी रात उधर रात हुई सुनसान हो गया। देखता क्या हु एक संदूक क़िले की दिवार पर से निचे चला आ रहा है। मैं अचंभे में हुआ की यह क्या तिलिस्म है ? शायद खुदा ने मेरी हैरानी और मुझ पर रहम खा कर खज़ाना गैब से इनायत किया। जब वह संदूक ज़मीन पर ठहरा। डरते डरते मैं पास गया। देखा तो काठ का संदूक है लालच से उसे खोला। एक माशूक़ ,खूबसूरत कामनी सी औरत। जिसके देखने से होश जाता रहा है। घायल। लहू में तर बा तर ,आंखे बंद किये पड़ी कलबलाती है धीरे धीरे होंठ हिलते है ,और यह आवाज़ मुँह से निकलती है :अये कम बख्त ,बे वफ़ा ! अये ज़ालिम पुर जफ़ा बदला इस भलाई और मुहब्बत का यही था जो तूने किया ?भला एक ज़ख्म और भी लगा। मैंने अपना इन्साफ खुदा को सौंपा। या कह कर उसी बेहोशी के आलम में दुपट्टे का आँचल मुंह पर ले लिया मेरी तरफ ध्यान न किया।
फ़क़ीर उसको देख
और यह बात सुन कर ,सुन्न हो गया जी में आया किसी बे हया ज़ालिम ने क्यू ! ऐसे नाज़नीन
सनम को ज़ख़्मी किया। क्या उसके दिल में आया ?और हाथ उसपर क्यू चलाया। इसके दिल
में मुहब्बत अब तक दिल बाक़ी है जो उस जान को
याद करती है। .मैं आप ही आप कह रहा था आवाज़ उसके कान में गयी एक बार कपडा मुँह से हटा कर मुझको देखा जिस वक़्त उसकी निगाह मेरी नज़रो से लड़ी ,मुझे गश और जी
सनसने लगा .हिम्मत करके पूछा : सच कहु तो तुम कौन हो और यह क्या माजरा है ? अगर
बयां करो तो मेरे दिल को तसल्ली हो ,यह सुन
कर बोलने की ताक़त न थी। आहिस्ते से कहा : शुक्र
है मेरी हालत ज़ख्मो के मारे क्या ख़ाक बोलू .कोई
दम की मेहमान हु जब मेरी जान निकल जाये तो
खुदा के वास्ते जावा मरदी करके मुझे बख्त को इसी संदूक में किसी जगह गाड़ देना तो मैं भले बुरे की ज़बान से निजात
पाऊ और तू दाखिल सवाब के हो .इतना बोल चुप हो गयी।
रात को मुझसे
कुछ तदबीर न हो सकी। वो संदूक अपने पास उठा लाया और घडिया गिनने लगा की कब इतनी रात तमाम हो तो फज्र में शहर जा कर जो कुछ इसका इलाज हो सके।
वो थोड़ी सी रात इतनी पहाड़ हो गयी की दिल घबरा
गया खुदा खुदा कर सुबह जब नज़दीक हुई ,मुर्ग बोला ,आदमियों की आवाज़ आने लगी। मैंने फज्र की नमाज़
पढ़ कर संदूक को उठाया जैसे ही दरवाज़ा शहर का
खुला ,मैं शहर में दाखिल हुआ हर एक आदमी और दूकानदार से हवेली किराये का तलाश करने
लगा। ढूंढते ढूंढ़ते एक मकान खुश नया फरागत का। भाड़े लेकर जा उतरा .पहले उस माशूक़ को संदूक से निकाल कर ,रुई के पहलु
पर मुलायम बिछोना करके एक गोशे में लिटाया
और आदमी एतबारी वहा छोड़ कर ,फ़क़ीर ,जर्राह
में निकला। हर एक से पूछता फिरता था इस शहर में जराह कारी कौन है और कहा रहता है एक शख्स ने कहा : एक हज्जाम जराही
के और हकीमी के फन में पक्का है , और काम
में निपट पक्का है। अगर मुर्दे को उसके पास
ले जाओ खुदा के हुक्म से ऐसी तदबीर करे की
एक बार वह भी जी उठे। वह उस मोहल्ले
में रहता है और ईसा नाम है।
मैं यह सुन कर बे इख़्तियार चला। तलाश करते करते पते से उसके दरवाज़े पर पंहुचा। एक मर्द सफ़ेद रेष को दहलीज़ पर बैठा देखा। और कई आदमी मरहम की तैयारी के लिए कुछ पीस पास रहे थे। फ़क़ीर ने मारे खुशामद के अदब से सलाम किया और कहा मैं तुम्हारा नाम और खुबिया सुन कर आया हु माजरा यह है की मैं अपने मुल्क से तिजारत के लिए चला ,क़बीले को बे सबब मुहब्बत के साथ लिया। जब नज़दीक इस शहर के आया थोड़ी सी दूर रहा था जो शाम पड़ गयी। अनदेखे मुल्क में रात को चलना मुनसिब न जाना। मैदान में एक दरख्त के तले उतर पड़ा। पिछले पहर डाका आया ,जो कुछ माल असबाब पाया लूट लिया गहने के लालच से उस बीबी को भी घायल ,मुझसे कुछ न हो सका रात जो बाक़ी थी जैसे तैसे काटी फज्र ही शहर में आकर एक मकान किराये लिया। उनको वहा रख कर मैं तुम्हारे पास दौड़ा आया हु। खुदा ने यह कमाल दिया है ,इस मुसाफिर पर रहम करो गरीब खाने तशरीफ़ ले चलो उसको देखो अगर उसकी ज़िन्दगी हुई तो तुम्हे बड़ा सवाब होगा और मैं सारी उम्र गुलामी करूँगा। ईसा जर्राह बहुत रहम दिल और खुदा परस्त था ,मेरी गरीबी की बातो पर तरस खा कर मेरे साथ हवेली तक आया। ज़ख्मो को देखते ही मेरी तसल्ली की बोला की खुदा के कर्म से इस बीबी के ज़ख्म चालीस दिन में भर आएंगे ,ग़ुस्ल शिफा का करवा दूंगा।
गरज़ उस मर्दे खुदा ने सब ज़ख्मो को नीम के पानी से धो ध कर साफ़ किया।
टांको से सिया। बाक़ी घाव पर एक डिबिया निकाल कर कितनो में बत्ती रखी और कितनो में फाये
चढ़ा कर ,पट्टी बांध दिया और निहायत शफ़क़त से कहा
:मैं दोनों वक़्त आया करूँगा ऐसी हरकत न करना जो टाँके टूट जाये। मुर्ग का शोरबा
बजाए ग़ज़ा ,उसके हलक़ में डालना ,और अक्सर अर्क
बेद मुश्क गुलाब के साथ दिया करना ,जो वक़्त रहे ,यह कह कर रुखसत चाही मैंने बहुत मिन्नत की :तुम्हारे तशरीफ़ लेन से मेरी
भी ज़िन्दगी हुई नहीं तो सिवाए मरने के कुछ न सूझता ,खुदा तुम्हे सलामत रखे इत्र पान दे कर रुखसत किया। मैं रात दिन खिदमत में
इस परी के खातिर रहता ,आराम अपने ऊपर हराम
किया। खुदा की राह से रोज़ रोज़ उसके ठीक होने की दुआ करता।
अचानक वो सौदागर
भी आ पंहुचा और मेरा माले अमानत मेरे हवाले
किया। मैंने उसे थोड़ा थोड़ा करके बेच डाला और
दार व दरबन में खर्च कर डाला। वह मर्द जर्राह हमेशा आता जाता। थोड़े अरसे में सब ज़ख्म
भर आये .कई दिन के गुसल के शिफा किया। अजब
तरह की ख़ुशी हासिल हुई। और अशरफिया ईसा हज्जाम के आगे धरे और उस परी को कालीन बिछा कर मसनद पर बिठाया। फ़क़ीर
,गरीबो को बहुत सी खेर खैरात की। उस दिन गोया बादशाहत मुफ्त उस फ़क़ीर के हाथ लगी। और उस परी के शिफा पाने
से ऐसा रंग निखरा की मुखड़ा सूरज के मानिंद
चमकने और कुंदन की तरह दमकने लगा। नज़र की मजाल न थी जो उसके जमाल पर ठहरे .जो फरमाती
सो बजा लाता। वह अपने हुस्न के गुरूर और सरदारी के दिम जो मेरी तरफ कभी देखती
तो शर्माती : खबरदार अगर तुझे हमारी खातिर मंज़ूर है तो हरगिज़ हमारी बात में दम न मारो
,जो हम कहे बिला उज़्र किये जाओ अपना किसी बात
पर दखल मत करो नहीं तो पछताओगे उसकी बात से यह मालूम होता था की हक़ मेरी खिदमत गुज़री और फार्म बरदारी का उसे अलबत्ता मंज़ूर है। फ़क़ीर
भी उसकी बे मर्ज़ी करता था। उसका फरमाना बजा लाता था।
एक मुद्दत इसी
नाज़ व नियाज़ में कटी। जो उसने फरमाईश की वही मैंने ला कर हाज़िर की। उस फ़क़ीर के पास
जो नक़द ,असल नफा था सब खत्म हुआ। उस बेगाने मुल्क में कौन एतबार करे जो क़र्ज़ दाम से
काम चले ? आखिर तकलीफ रोज़ मेरे कलेजो में आगया लेकिन किस्से कहु ? जो दिल पर गुज़रे सो गुज़रे
,दिल बहुत घबराया ,फ़िक्र से दुबला होता चला
गया। क़हर दरवेश के जान दरवेश। एक दिन उस परी ने अपने से मुख़ातिब हो कर कहा : अये फलाने
! तेरी ख़िदमतो का हक़ मेरे दिल पर नक़्श है अगर वास्ते खर्च ज़रूरी के कुछ दरकार हो तो
अपने दिल में अंदेशा न कर एक टुकड़ा क़लम दवात
हाज़िर कर। मैंने तब मालूम किया ,किसी मुल्क के बादशाह ज़ादी है जो जो इस दिल व दिमाग
से गुफ्तुगू करती है फ़िलहाल क़लम आगे रख दिया। उस नाज़नीन ने एक दस्तखत खास लिख कर मेरे
हवाले किया और कहा : क़िले के पास तरपुलिया है वह उस कूचे में एक हवेली बड़ी सी है ,उस मकान के मालिक का नाम सईदी भार है। तू जाकर
इस कागज़ को उस तलक पंहुचा दे .
फ़क़ीर ने उसके इसी नाम व निशाँ पर मंज़िल मक़सूद तक पंहुचा। दरबान की ज़बानी कैफियत खत की कहला भेजा .वही सुनते ही एक हब्शी जवान खूबसूरत बाहर निकला। रंग सनौला था पर गोया तमान नमक भरा हुआ है। मेरे हाथ से खत ले लिया ,न बोलै ,न कुछ बोला उन्ही क़दमों अंदर चला गया थोड़ी देर में ११ कश्तिया सर्बा महर , ज़र्बफ्त के तोरा पॉश पड़े हुए गुलामो के सर पर धरे बाहर आया कहा : जवान के साथ जा कर ,चुगोशे पंहुचा दो। मैं भी सलाम का रुखसत हुआ। अपने मकान में लाया। आदमियों को दरवाज़े के बाहर से रुखसत किया परी ने देख कर कहा : यह ११ बिदरे अशर्फियों के ले और खर्च में ला। खुदा राज़िक़ है। फ़क़ीर उस नक़द को लेकर ज़रुरियात में खर्च करने लगा .खातिर जमा हुई ,पर दिल खलश रही ,या इलाही ! यह क्या सूरत है ? बगैर पूछे इतना माल न आशना सूरत अजनबी ने ,एक पुर्ज़े कागज़ पर मेरे हवाले किया। अगर इस परी से भेद पुछु तो उसने पहले ही मना कर रखा है। मारे डर के दम्म नहीं मार सकता।
बाद आठ दिन के
वह माशूक़ा मुझसे मुखातिब हुई की हक़ ताला ने आदमी को इंसानियत का जामा इनायत किया है
की न फटे न मैला हो। अगरचे पुराने कपडे से
उसकी आदमियत में फ़र्क़ नहीं आता पर ज़ाहिर में ख़ल्क़ अल्लाह के नज़रो में एतबार नहीं पाता। दो तोड़े अशर्फी के
साथ लेकर ,चौक के चौराहे पर ,युसूफ सौदागर की दूकान में जाकर और कुछ रक़म जवाहर की बेष क़ीमत ,और ज़र्क़ बरक की मोल
ले आ। फ़क़ीर वो नहीं सवार हो कर उसकी दूकान में गया। देखा तो एक जवान शकील ,ज़ाफ़रानी
जोड़ा पहने गद्दी पे बैठा है। और उसका यह आलम है की एक आलिम देखने के लिए दूकान से बाजार तक खड़ा है। फ़क़ीर कमाल शौक़ से नज़दीक जा कर सलाम
कर बैठा और जो जो चीज़ मतलब की थी तलब की। मेरी बात चीत इस शहर के बाशिंदो की
सी न थी .इस जवान ने गर्म जोशी से कहा : जो साहब को चाहिए मौजूद है लेकिन
यह फरमाइए किस मुल्क से आना हुआ ? और इस अजनबी
शहर में रहने का मतलब ? अगर इस हक़ीक़त से मुतल्ला कीजिये ,मेहरबानी से छिपाइए नहीं।
मेरा अपना राज़ खोलना अच्छा नहीं नहीं था। कुछ
बात बना कर और जवाहर पोशाक लेकर और क़ीमत उसकी देकर रुखसत चाही। इस जवान ने रूखे फीके
हो कर कहा : अये साहब !अगर तुम को ऐसी ही न
आशना करनी थी तो पहले दोस्ती इतनी गर्मी से
करनी क्या ज़रूरत थी ? आदमियों में साहब सलामत का पास बड़ा होता है। यह बात इस मज़े और अंदाज़ से कही ,बे इख़्तियार दिल को भाई
और बे मरुआत हो कर वहा से उठना ,इंसानियत के
मुनासिब न जाना .उसकी खातिर फिर बैठा और बोला
: तुम्हारा फरमाना सर आँखों पर मैं हाज़िर हु।
इतने कहने से बहुत खुश हुआ ,हंस कर कहने लगा : अगर आज के दिन गरीब खाने पर कर्म कीजिये। तो तुम्हारी बदौलत मजलिस ख़ुशी की जमा कर ,दो चार घडी दिल बहला और कुछ खाने पीने का शगल बाहम बेथ कर करे। फ़क़ीर ने उस नाज़नीन को भी कभी अकेला न छोड़ा था उसकी तन्हाई याद कर चंद दर चंद उज़्र किये। पर उस जवान ने हरगिज़ न मानी। आखिर वादा इन चीज़ो का पंहुचा कर ,मेरे फिर आने का लेकर और क़सम खिला कर। रुखसत दी। मैं दूकान से उठ कर जवाहर लेकर उस नाज़नीन की खिदमत में हाजीर किया। उसने क़ीमत जवाहर की हक़ीक़त जोहरी की पूछी ,मैंने सारा अहवाल मोल तोल का और मेहमानी के बजिद होने का कह सुनाया फरमाने लगी : आदमी को अपना क़ौल क़रार पूरा करना वाजिब है हमें खुदा की निगहबानी में छोड़ कर अपने वादे को वफ़ा कर ,ज़ियाफ़त क़ुबूल करनी ,सुन्नत रसूल की है। तब मैंने कहा : मेरा दिल चाहता नहीं की तुम्हे अकेला छोड़ कर जाऊ और हुक्म यु होता है ला चार जाता हु। जब तिलक आऊंगा। दिल यही लगा रहेगा .यह कह कर फिर उस जोहरी की दूकान पर गया। वह मोंढे पर बैठा मेरा इंतज़ार खींच रहा था। देखते ही बोलै :आओ मेहरबान !बड़ी राह दिखाई।
वही उठ कर मेरा हाथ पकड़ लिया है और चला। जाते जाते एक बाग़ में ले गया। वह बड़ी बहार का बाग़ था। हौज़ और नहरों में फव्वारे छूटते थे। मेवे तरह तरह के फल रहे थे। हर एक दरख्त मारे बोझ के झूम रहा था। रंग रंग के जानवर उनपर बैठे चहचहा रहे थे। और हर मकान आली शान में फर्श सुथरा बिछा था। वह लबे नहर एक बंगले में जाकर बैठे .एकदम के बाद आप उठ कर चला गया ,फिर वही दूसरी पोशाक माक़ूल। मैंने देख करा कहा : सुभहान अल्लाह चश्म बदूर ! सुन कर मुस्कराया और बोला : मुनासिब यह है की साहब भी अपना लिबास बदल डाले। उसकी खातिर मैंने भी दूसरे कपडे पहने। इस जवान बड़ी अच्छा सा तैयारी ज़ियाफ़त की और सामान ख़ुशी का जैसा चाहिए मौजूद किया ,और फ़क़ीर से सोहबत बहुत गर्म कर ,मज़े की बाते करने लगा। इतने में साक़ी सुराही व प्याला लेकर हाज़िर हुआ और गज़क कई तरह का लेकर रखी ,नमकदान चुन दिए ,दूर शराब का शुरू हुआ ,जब दो जाम की नौबत पहुंची ,चार लड़के अम्र साहब ,व जमाल,,ज़ुल्फ़े खोले हुए मजलिस में आएगा ,गाने बजाने लगे। यह आलम हुआ और ऐसा समा बंधा। अगर तान सीन इस घडी होता तो अपनी तान भूल जाता। इस मज़े में एक बारगी वह जवान आंसू भर लाया ,दो चार क़तरे बे इख़्तियार निकल पड़े ,और फ़क़ीर से बोला : अब हमारे तुम्हारे दोस्ती जानी हुई। पस दिल का भेद दोस्तों से छिपाना किसी मज़हब में दुरुस्त नहीं। एक बात बे तकल्लुफ आशनाई के भरोसे कहता हु ,अगर हुक्म करो तो अपनी माशूका को बुलवा कर इस मजलिस में तसल्ली अपने दिल की करू। उसकीउसकी जुदाई से जी नहीं लगता।
यह बात ऐसे इश्तियाक़
से कही की बगैर देखे भाले फ़क़ीर का दिल भी मुश्ताक़ हुआ। मैंने कहा : मुझे तुम्हारी ख़ुशी
दरकार है। इससे क्या बेहतर ? देर न करें ,सच है ,माशूक़ बन कुछ अच्छा नहीं लगता। इस
जवान ने चिलवान की तरफ इशारा किया। वही एक
औरत काली कलोटी भूतनी सी ,जिसके देखने से डर गया , दिल में कहा : यही बला महबूबा ऐसे जवान परीजाद की है। जिसकी
इतनी तारीफ और इश्तियाक़ ज़ाहिर किया ! मैं ला हौल पढ़ कर चुप हो रहा। इसी आलम में तीन
दिन रात मजलिस शराब और राग रंग की जमी रही। चौथी शब को ग़लबा
नशे और नींद का हुआ। मैं खवाब गफलत में बे इख़्तियार सो गया। जब सुबह हुई ,इस
जवान ने जगाया। कई प्याले खुमार शिकनी के पीला कर अपनी माशूक़ा से कहा : अब ज़्यादा
तकलीफ मेहमान को देनी खूब नहीं।
दोनों हाथ पकड़ कर उठे ,मैंने रुखसत मांगी ख़ुशी बा ख़ुशी इजाज़त दी। तब मैंने जल्दी अपने क़दीम कपडे पहने ,अपने घर की राह ली और इस नाज़नीन की खिदमत में जा कर हाज़िर हुआ। मगर ऐसा इत्तेफ़ाक़ कभी नहीं हुआ था . की ऐसे तनहा छोड़ कर ,शब् बैश कही हुआ हो। इस तीन दिन की गैर हाज़री से निहायत खजल हो कर उज़्र किया ,और क़िस्सा ज़ियाफ़त का और उसके न रुखसत करने का सारा अर्ज़ किया। वह एक दाना ज़माने की थी। तबस्सुम करके बोली : क्या बुराई है अगर एक दोस्त की खातिर रहना हुआ ? हमने माफ़ किया ,तेरी क्या तक़सीर है ? जब आदमी किसी के घर जाता है तब उसकी मर्ज़ी से आता है। लेकिन यह मुफ्त की मेहमानिया खा पी कर। चुपके रहोगे या उसका बदला भी उतारोगे। ? अब यह लाज़िम है की जाकर उस सौदागर बच्चे को अपने साथ ले आओ ,और उससे दो चंद ज़ियाफ़्त करो। और असबाब का कुछ अंदेशा नहीं। खुदा के कर्म से एक दम लवाज़मात तैयार हो जाओगे और कहा : तुम्हारा फरमाना मैं तो सर आँखों से बजा लाया ,अब तुम भी मेहरबानी की राह से मेरी अर्ज़ क़ुबूल करो। उसने कहा : जान व दिल से हाज़िर हु।
तब मैंने कहा : अगर उस बंदे के घर तशरीफ़ ले चलो ,क़रीब नवाज़ी है। इस जवान ने बहुत उज़्र और हीले किये। पर मैंने पिंड न छोड़ा ,जब तलक वो राज़ी हुआ साथ ही साथ उसको अपने मकान पर ले चला। लेकिन राह में यही फ़िक्र करता आता था। की अगर आज अपने मक़दूर होता तो ऐसी खातिर करता की यह भी खुश होता। अब मैं इसे लिए जाता हु। देखे क्या इत्तेफ़ाक़ होता है। इसी बीच में घर के नज़दीक पंहुचा ,तो क्या देखता हूँ की दरवाज़े पर धूम धाम हो रही है। गलियारे में झाड़ू दे कर छिड़काव क्या है। मैं हैरान हुआ लेकिन अपना घर जान कर क़दम अंदर रखा। देखा तो तमाम हवेली में ब्रश मुकल्लफ़ लायक हर मकान के जा बजा बिछा है और मसनदे लगी है। पान दान ,गुलाब पाश ,इत्रदान ,पैक ,चंगेरन ,ननरगिस दान ,क़रीने से धरे है। ताको पर रँगतेरे ,कनोले ,नारंगियाँ ,और गुलबिया ,रंग बा रंग की की चुनी है। एक तरफ रंग आमेज़ा बरक की टिट्टियो में चिरागा बहार है। एक तरफ झाड़ सर व कनोल के रोशन हैं , तमाम दालान और शह नशीनो में तलाई शमा दानो पर काफूरि शमए चढ़ी है। और जड़ा वफ़ा नवेसे ऊपर धरी है। आब दार खाने अपने अहदो पर थे। आबदार खाने की वैसी ही तैयारी है कोरी कोरी ठिलिया रुपये की खाडोछे पर ,सफियो से बंधी और बिचरो से ढकी रखी है। आगे चौंकी पर डोंगे ,कटोरे .और थाली सर पोश धरे ,बर्फ के आब खोरे लग रहे है। और शोरे की सुराहियाँ हिल रही है।
गरज़ सब असबाब बादशहाना मौजूद है ,आछुई पोशाक पहने साज़ की सुर मिलाये हाज़िर है। फ़क़ीर ने उस जवान को लेकर मसनद पर बिठाया और दिल में हैरान था की या इलाही ! इतने अरसे में यह सब तैयारी कैसे हुई हर तरफ देखता फिरता था लेकिन उस नाज़नीन का निशान कही नहीं पाया। देखते देखते बावर्ची खाने में गया देखता हु वह नाज़नीन एक मकान में गले में करती पाव में तहपोशी ,सर पर सफ़ेद रुमाली ओढ़े हुए सादी ख्वाज़ी .
खबर गिरी में ज़ियाफ़्त लग रही है। और ताकीद हर एक खाने की कर रही है। की खबरदार ! बा मज़ा हो और आब नमक बू बॉस दुरुस्त रहे। इस मेहनत से वह गुलाब सा बदन सारा पसीने पसीने हो रहा है।
मैं पास जाकर
तसद्दुक़ हुआ और उस शऊर व लियाक़त को सराह कर दुआए देने लगा। यह खुशामद सुन कर तेवर चढ़ा
कर बोली : आदमी के ऐसे ऐसे काम होते है की
फ़रिश्ते की मजाल नहीं ,मैंने ऐसा क्या किया
जो इतना हैरान हो रहा है ? बस बहुत बाते बनाने
मुझे खुश नहीं आते। भला कह तो यह कौन आदमियत है की मेहमान को अकेला बिठला कर इधर उधर पड़े फिरे ? वह अपने जी में क्या
कहता होगा। जल्द जा मजलिस में बैठ कर मेहमान की खातिर दारी कर और उसकी माशूका को भी
बुलवा कर उसके पास बिठला। फ़क़ीर उस जवान के
पास गया और गर्मजोशी करने लगा। इतने में दो
गुलाम साहब जमाल सुराही और जाम जड़ाऊ हाथ में लिए रु बा रु आये और शराब पिलाने लगे। इसमें मैंने उस जवान से
कहा : मैं सब तरह मुख्लिस और खालिस और खादिम हु बेहतर यह है की वह साहब जमाल की जिस की तरफ दिल साहब का
मायल है ,तशरीफ़ लादे तो बड़ी बात है। अगर फरमाओ
तो आदमी बुलाने की बात कही। मैंने एक खोजे को भेजा। जब आधी रात गयी ,वह चुड़ैल। खासे
चूडोल पर सवार हो कर बलाये नागहानी सी आ पहुंची।
फ़क़ीर ने लाचार खातिर से मेहमान की इस्तेकबाल कर ,निहायत तपाक से बराबर उस जवान के ला बिठाया ,जवान उसके देखते ही ऐसा खुश हुआ जैसे दुनिया की नेमत मिली।वह भूतनी भी उस जवान परी के गले लिपट गई ।सच मच यह तमाशा हुआ जैसे चोधवी रात के चांद को गहन लगता है ।जितने मजलिस में आदमी थे अपनी अपनी उंगलियां दांतो मे दाबने लगे क्या कोई बला इस जवान पर मुसल्लत हुई ? सबकी निगाह उसी तरफ थी ,तमाशा मजलिस का भूल कर उसका तमाशा देखने लगे ।एक शख्स किनारे से बोला : यारो इश्क और अक्ल में जिद है जो कुछ अकल में ना आए ये काफिर इश्क कर दिखाए लैला को मजनू की आंखों से देखो सभी ने कहा यही बात है
यह फकीर हुक्म के मेहमानदारी में हाजिर था । हर चंद जवान हम प्याला हम निवाला होने को मजूस होता था । पर मैं हरगिज इस परी के खौफ के मारे अपना दिल खाने पीने तमाशे की तरफ न करता था ।और उजर मेहमानदारी का करके उसके शामिल न होता था ।इसी कैफियत से तीन शबाना रोज गुजरे ।चौथी रात वह जवान निहायत कोशिश से मुझे बुला कर कहने लगे : अब हम भी रुखसत होंगे ,तुम्हारी खातिर अपना सब कारोबार छोड़ कर ,तीन दिन से तुम्हारी खिदमत में हाजिर है तुम भी तो हमारे पास एक दम बैठ कर हमारा दिल खुश करो ।मैने अपने जी में खयाल किया अगर इस वक्त कहना इसका नही मानता तो अजरदा होगा पास नए दोस्त और मेहमान की खातिर रखने जरूर है ,तब यह कहा : साहब का हुक्म बजा लाना मंजूर की सुनते ही उस को जवान ने प्याला तवजाह किया और मैने पी लिया फिर ऐसा दूर चला की थोड़ी देर में सब आदमी मजलिस के कैफ हो कर बेखबर हो गए ।और मैं बेहोश हो गया ।
RISHITA
20-Jan-2025 05:29 AM
👌👌
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